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“पहले संतान, फिर स्क्रीन” — बचपन की लुप्त होती मासूमियत और हमारी सामाजिक ज़िम्मेदारी

Child First Screen Later: “क्या तू चेकची नागछे?” — जैसे ही नन्हीं बच्ची ने अधूरे शब्दों में यह डायलॉग बोला, पूरा परिवार हँसी से लोटपोट हो गया। तालियाँ बजने लगीं, वीडियो रिकॉर्ड हुआ, सोशल मीडिया पर अपलोड कर दिया गया। लाइक और व्यूज़ की बौछार होने लगी। मगर क्या किसी ने यह सोचा— उस बच्ची को उन शब्दों का मतलब तक नहीं पता?

आज के समय में यह दृश्य अनोखा नहीं, बल्कि आम होता जा रहा है। नन्हें बच्चे हँसते-खेलते मोबाइल पर रील्स के डायलॉग्स दोहराते हैं, अश्लील गानों की पंक्तियाँ गाते हैं, बिना ये जाने कि उनके शब्दों का भाव क्या है। और हम, अभिभावक— इस दृश्य पर नाज़ करने लगते हैं।

रील्स और कार्टून के पर्दे में उलझा बचपन

विशेषज्ञों की मानें तो आज के बच्चों का बचपन एक कृत्रिम दुनिया में खो गया है। अब उनके साथी हैं— मोबाइल की रंगीन स्क्रीन, यूट्यूब के फैंसी कार्टून और इंस्टाग्राम की तेजी से बदलती रील्स। जहां एक समय पेड़ों की छांव में, मिट्टी में खेलना, कागज़ पर चित्र बनाना या किताब पढ़ना उनका शौक था— अब वहां इमोजी, फिल्टर और स्क्रॉल ही है।

8 साल तक बनता है मस्तिष्क का ढांचा

शिशु मस्तिष्क की रचनात्मक संरचना एवं संज्ञानात्मक क्षमता का अधिकतर विकास आठ वर्ष की उम्र तक होता है। परंतु आजकल बच्चे दो-तीन साल की उम्र से ही मोबाइल के स्क्रीन से चिपक जाते हैं। परिणामस्वरूप उनकी कल्पनाशीलता, ध्यान केंद्रित करने की शक्ति और यथार्थ से जुड़ाव बुरी तरह प्रभावित हो रही है।

“शांत बच्चा” नहीं, यह है चुप्पी की तबाही

कई माता-पिता सोचते हैं कि मोबाइल में खोया बच्चा “शांत” है, यानी घर में झंझट नहीं कर रहा। लेकिन विशेषज्ञ इसे “साइलेंट डिजास्टर” कहते हैं। ऐसे बच्चे समाज से कटने लगते हैं, आत्ममुग्ध और अंतर्मुखी बन जाते हैं। उनके सामाजिक कौशल का विकास थम जाता है।

जो वे देख रहे हैं, वही वे सीख रहे हैं

सोचिए— जब बच्चा किसी अश्लील गीत को दोहराता है, या किसी हिंग्लिश स्लैंग को कॉपी करता है, वह नहीं जानता उसका अर्थ, लेकिन उसका मन-मस्तिष्क धीरे-धीरे उसी दिशा में ढलता है। ऐसे कंटेंट से उनका नैतिक व बौद्धिक विकास एक खतरनाक दिशा में मुड़ सकता है।

हम हैं जिम्मेदार— माता-पिता, समाज और सिस्टम

इस स्थिति के लिए तकनीक नहीं, बल्कि हम— अभिभावक, समाज और बाज़ारीकरण की संस्कृति ज़िम्मेदार हैं।
बच्चों के पास अब दादी-नानी की कहानियाँ नहीं, न ही गली के दोस्त हैं। माता-पिता की व्यस्तता, संयुक्त परिवारों का अभाव और सोशल मीडिया पर दिखावे की होड़ में हम बच्चों को अकेला छोड़ रहे हैं— एक ऐसे “डिजिटल पालने” में जो बाहर से रंगीन, भीतर से ख़ाली है।

बच्चों को चाहिए साथ—not स्क्रीन

बच्चा केवल खिलौना या स्क्रीन नहीं चाहता— वह चाहता है किसी का साथ।
किसी का हाथ पकड़कर पेड़ की पत्तियाँ गिनना, किसी की आवाज़ में कहानी सुनना, साथ में कुछ बनाना या बिगाड़ना— ये हैं वह पल जो एक बच्चे के व्यक्तित्व को पूर्ण बनाते हैं।

समाधान की ओर कुछ ठोस कदम

🔸 मोबाइल नहीं, अपना समय दें: बच्चों के साथ संवाद करें, उनके साथ खेलें।
🔸 कंटेंट को छांटें: जो भी वे देख रहे हैं, उस पर नजर रखें।
🔸 स्क्रीन टाइम सीमित करें: American Academy of Pediatrics के अनुसार, दो साल से छोटे बच्चों के लिए स्क्रीन पूरी तरह टालनी चाहिए।
🔸 गाने-डायलॉग्स के मायने समझाएँ: हर शब्द जो बच्चा दोहराता है, वह उसके अंदर उतरता है।
🔸 रील्स शेयर करने से बचें: उनकी मासूमियत को सोशल मीडिया की मंडी में न बेचें।
🔸 उनके साथ कहानियाँ सुनें-सुनाएँ: डिजिटल कंटेंट से कहीं बेहतर होती हैं दादी-नानी की कहानियाँ।

एक सामाजिक संकट बन चुकी है यह आदत

यह अब सिर्फ एक पारिवारिक परेशानी नहीं, बल्कि एक सामाजिक आपदा है। यदि अब भी हम नहीं चेते, तो अगली पीढ़ी सिर्फ तकनीकी दक्ष होगी, भावनात्मक रूप से नहीं। वे नहीं जानेंगे फूलों की महक, बारिश की बूंदें, दोस्ती की गर्माहट या अपनी कल्पना के परिंदों से उड़ान भरना।

पहले संतान, फिर स्क्रीन — अब जागने का समय है!

यदि हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे स्वस्थ, रचनात्मक और भावनात्मक रूप से संपन्न बनें— तो हमें अपनी प्राथमिकता तय करनी होगी।
सस्ते मनोरंजन की लालसा में हम बच्चों की असली ज़िंदगी को सस्ता न बना दें। मोबाइल जीवन का हिस्सा हो सकता है, लेकिन वह बचपन का विकल्प नहीं हो सकता।

समाप्ति संदेश:
“अपने बच्चों को वो बचपन दें जो आपने जिया था— ना कि वो स्क्रीन जो आपने उन्हें थमा दी।”

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